
बचपन का वह समय जो हम सभी भाई बहन साथ गुजारे हैं। बहुत ही खुशनुमा समय था। जिंदगी उमंग से भरी थी। यह वो समय था जब हम सभी के साथ दोनों बाबा,माई और अम्मा थी।
व्योमकेश शुक्ला जी की कविता है कि आप कितने भाई बहन हैं। अगर मै इसे उन्हीं की तरह अपने लिए कहूं ..
मैंने कभी गीना तो नहीं …
कि मेरे कई भाई और कई बहनें हैं
उसमें से सीबलु एक…
और सीबलु की यह स्मृति शेष.
मै अपने अतीत को हु-ब-हु लिख लेना चाहता हूं। दुसरी तरफ जैसे मेरा अतीत एक बंद जगह में क़ैद है। उसके के लिए इसे उजागर करना है, सीबलु इसका एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।
ये सब मै अपने भीतर एक शांति लाने के लिए करता हूं-एक सुकून हेतु जो भाई के न होने से हमेशा के लिए टूट गया है।
बचपन की बातें
हमारे पुराने घर के आगे से सड़क निकलती है। इसके पश्चिम दिशा में सड़क पार करते ही हमारा अहाता था। गांव में सभी उसे ‘मन्नु का हाता’ कहा करते थे। मन्नु पिताजी का घर का नाम है।
अहाते के आगे पश्चिम में एक बड़ा ताल है । अहाते के आगे इस खुले ताल के कारण हम सभी को अपना घर, गांव के आखिरी छोर पर लगता रहा है। ताल में गेहूं और धान की अच्छी फसल होती है।
अहाते के पश्चिम में ताल की तरफ मुंह करके खड़े हो जाएं तो हमारे बाएं ‘साह जी का बगीचा’ है। जो गांव के बच्चों के धमा-चौकड़ी की मुख्य जगह है।
हाते के छोर से ताल के पश्चिम-उत्तर के बीच में दाहिने हमारी फुआ का प्यारेपुर है। जहां हम सभी भाई अपने दोस्तों के साथ लीलगायों(नीलगाय) को हांकते पहुंच जाते, पानी पीते और लौट आते थे। हमारी बहन जब छोटी थी अगर वह प्यारेपुर होती तो उसे हम लोग उसी रास्ते लेकर आ जाते थे।
बरगद का पेड़
आहाते में एक पुराना बरगद का पेड़ है। इस बरगद के पेड़ से हमारे अलावा हमारे चाचा पापा व फुआ का बचपन भी जुड़ा हुआ है।
हम सभी भाइयों का नामकरण चाहें पुकारने का नाम, ‘बबलू डबलु सीबलु व झबलू’ या शैक्षणिक नाम, इसी पेड़ के नीचे तय होता रहा।
मेरा नाम तो इस बरगद के पेड़ के नीचे, सड़क पर काम करने वाले एक व्यक्ति द्वारा दिया गया था।
बाबा के अनुसार उस दिन २३ मार्च को रेडियो पर भगत सिंह पर एक प्रोग्राम आ रहा था। घर में से सूचना मिली कि बेटा हुआ है। सड़क पर काम करने वाले उस व्यक्ति ने कहा कि रामसरन जी(बाबा) आपके यहां तो भगत सिंह आ गयें। और इस तरह बाबा ने इस नाम को मेरे लिए अपना लिया।
इसके बाद परिवार में बाबा बच्चों का नाम क्रांतिकारियों पर ही रखने लगे। डबलु का चन्द्रशेखर आजाद व राजगुरु, तो सीबलु का सुखदेव व शिवाजी। सीबलू के साथ जूनियर हाई स्कूल तक पढ़े उसके मित्र उसे अभी भी शिवाजी कहकर पुकारा करते थे। विपुल कुमार नाम हाई स्कूल के छात्र होने पर पड़ा।
ऐसा हुआ कि जब चाचा को डबलु सीबलु के नाम का पता चला तो बाबा से कहा की स्कूल में इनका नाम अभय कुमार व विपुल कुमार लिखवा दें। लेकिन बाबा को क्रांतिकारी के नाम पसंद आते थे। मेरा नाम तो नहीं बदला लेकिन चाचा ने अन्य भाईयों का नाम बदलवा दिया।
बाबा का बस चलता तो हमारी बहन पिंकी का नाम ‘झांसी की रानी’ पड़ जाता, शुभम और झब्लू का बिस्मिल और अशफाक। उज्जवल को तो वे कलाम बहुत दिनों तक पुकारतें रहे थे।
आप अपनी जिंदगी अपने मन माफिक नहीं जी सकते। हां हम सभी अपनी जिंदगी के खूबसूरत पलों को संजो के रख सकते हैं।
खासतौर से अपने बचपन के पल जो आपने अपने भाई बहन और दोस्तों के साथ बिताए हैं..
बचपन में जैसे सभी बच्चे उधमी होते हैं वैसे ही हम लोग भी थे। हम तीनों भाईयों में सबसे छोटा और हमारा प्यारा सिबलु था।
सिबलु के लिए एक झूला था। बरगद के पेड़ के नीचे अक्सर जब उसे झुले में लिटाया जाता तो डबलु आकर जिद करने लगता कि इसे निकालो मैं इसमें सोऊंगा।
जब हमारा तीन से चार भाई-बहन का समुह हुआ। वो हमारी छोटी बहन पिंकी थी। उसे तो हम लोग एक पल नहीं छोड़ते।
अगर वह फुआ के वहां प्यारेपुर चली जाती,हम सभी पैदल ही ताल के रास्ते जाते। उसे वहां से लगभग 1.5-2 किलोमीटर की दुरी वापस पैदल ही लेकर लौट पड़ते थे।
उस समय सबसे बड़ा, मैं बारह या तेरह साल का रहा होगा। उसे कंधे पर बिठाकर सबसे ज्यादा दूर तक चलता, तो कुछ दुर तक डब्लू ।
सी ब्लू तो उसे कंधे पर उठाने के चक्कर में कई-कई बार गिरा देता। पिंकी चिल्लाने लगती तो उसे वह बाल सहला कर चुप कराने लगता।
आगे हमारे जीवन में पांचवां झबलू आया। एक क्रम में हम सभी का प्रेम झबलू पर बढ़ गया।
मालीपुर प्राइमरी स्कूल पर हो रहे मैच का मुझे आज भी याद है। जब मै और सीबलु बैटिंग कर रहे थे, झबलू ग्राउंड पर आकर बिस्कुट दिलाने की जिद कर लिया था। ऐसा उसबार उसने दो-तीन बार किया।
सीबलु भाग-भाग कर के जाता बिस्कुट दिलाता लेकिन कुछ देर बाद झबलू फिर से आकर ग्राउंड में खड़ा हो जाता।
इस तरह हम सभी की जिंदगी हमारे भाई बहन शामिल होते गए और जिंदगी खूबसूरत ढंग से आगे बढ़ती रही।
व्योमेश जी की कविता की तरह मैं अपने सभी भाई-बहनों को पुकारूं तो मुझसे छोटी गुड़िया, ‘सबकी गिलहरी दीदी’, बेबी, विनय, बिट्टू, सुभम और उज्जवल हैं।
सीबलु सहित हम सभी एक दुसरे के बचपन के खुशियों के भागीदार हैं ।
घर का आंगन
छुट्टियों या सामान्यत: आम दिन हो, हम सभी शाम को खाना खाने घर के आंगन में आ जाते थे।
मिट्टी वाला जब घर था तब आंगन बहुत बड़ा था आज भी पुराने घर का आंगन बड़ा ही है। इसी आंगन में पूरा परिवार इकट्ठा होता था ।
दोनों माई, फुआ और चाची पुरानी बातें बतियाती। खासतौर से वे बातें जिससे हम लोग खूब हंसते जोर-जोर से ठहाके लगा के।
हम सभी का ये साथ साथ का हंसना खेलना आगे के जीवन हेतु एक-दूसरे पर मजबूत विश्वास बनाता गया।

बड़की माई की कहानियां
शाम के समय बड़की माई सीबलू और पिंकी को लेकर कहानी सुनाते-सुनाते उनको सुला देती थी।
दादी और नानी की लोक कहानियों जैसे उनकी कहानियां थीं। बड़की माई अपनी कहानी गीत गाकर सुनाती थी । उनकी एक कहानी का गीत मुझे आज भी याद है।
इस कहानी को सुनने के लिए सीबलू बहुत जिद किया करता था की माई, पडवा वाली (भैंस का बच्चा) कहानी सुनाओ।
इसके बाद माई के कहानी कहने का अद्भुत लहजा- जिसमें वो शांत-सौम्य हो जाती और हम सभी उसके कहानियों में डुब जाते।
कहानी ऐसे थी कि एक पड़वा, बाघ के खेत में चला जाता और उसकी फसल खराब कर देता था। जिसकी रखवाली एक सियार करता था।
सियार जब पड़वे को धमकाया कि तुम्हारी बाघमामा से शिकायत कर दूंगा वह तुम्हें खा जाएंगे तो पड़वा उससे कहता था..
सात भैंस के सात चभक्का
सात शेर घींव खांव रे
कहां हंवें तोर बाघ मामा
बुलावा दो पक्कड़ हो जाव रे..
इस कविता के बाद तो सीबलू इसे गाते पूरे आंगन में फुदकने लगता साथ में पिंकी भी हो जाती…… डबलु गुस्सा जाता कि ये दोनों कहानी पूरी नहीं होने दे रहे हैं…….. छुटकी माई इनको हल्ला मचाते देखती तो हंसते हुए कहती कि पड़वा, बनरा-बनरी बन गये…
बड़की और छुटकी माई का वो सनिध्य जिसमें सीबलु चहकते हुए मुस्कुराना, छोटी बहन पिंकी को उसका हल्का चपत लगाना और फिर पिंकी का नाराज हो जाना।
यह बचपन के खूबसूरत पल एक सुनहरे ख्वाब की तरह हमारी जिंदगी में पिरो गए हैं।
बड़की माई की अन्य कहानियां
एक हूणार की कहानी थी। जो एक परिवार में पांच भाइयों के साथ पला था।
जब सभी भाई कमाने के लिए घर से दूर जाते हैं और हूणार को घर पर छोड़ देते हैं। रास्ते में जब भाइयों को कोई जरूरत होती है तो हर बात में हूणार को याद करते हैं, ” हूणार भयवा रहता तो जामुन का फल खिलाता।
एक कहानी एक चिड़िया की थी। जिसे एक राजा ने मार कर खा लिया था। ये कहानियां मुझे पूरी तरह से याद नहीं मगर थी बहुत मजेदार…
बड़की/छोटकी माई, अम्मा और चाची
अम्मा हम सभी में से सबसे ज्यादा सीबलु के हिस्से आई। बचपन में सीबलु एक क्षण के लिए अम्मा को नहीं छोड़ता था। बस घर का आंगन ही वह जगह थी जब शाम को हम सभी इकट्ठा होते थे। वह कहानियां सुनने बड़की माई के पास रहता था।
चाची जी के साथ सीबलु देर तक पढाई करता था। बाद के दिनों में हम सभी से चाची कहतीं थी कि सीबलु शांति से बैठकर पढ़ाई करता था। हम लोग भाग जाते थे।
हम सभी में सीबलु ही ऐसा था जिसमें दोनों माई के गुण थे।
बड़की माई जिद्दी थी तो वहीं छोटकी माई एक जादुगरनी लगती। जैसे प्रसिद्ध रुसी लेखक गोर्की जी की नानी थी।
हां एक बात गोर्की जी की नानी से अलग थी कि दोनों को कोई भी प्रताड़ित या डरा नहीं सकता था।
एक बार सीनाथ बाबा के मकान को गिराने के लिए पुलिस आई थी, दोनों माई और अन्य कई महिलाएं पुलिस के सामने खड़ी हो गई थी ‘ऐसे ही घर थोड़े गिरा देबा जा’। पुलिस को बैरंग वापस लौटना पड़ा था।
किसी को बिच्छू काट ले, कोई महिला बीमार पड जाए या किसी के यहां बच्चा पैदा होने वाला हो, गांव के सभी छोटकी माई के यहां आते थे। माई कुछ घांस व जड़ी बूटियों के बारे में जानती थी, जो बुखार व दर्द कम करते थे। यही उन्हें उपलब्ध करा देती थी।
बचपन का उधम
मेरे सभी भाई बहन मेरे पीछे पीछे घुमा करते । जहां भी मैं जाता चाहे वह शाह जी का बगीचा हो, ताल में क्रिकेट में खेलने जाना हो या टीवी देखने।
यही कारण था कि मैं कोई न कोई बहाना बनाकर इन सभी से बचकर खेलने निकल जाना चाहता। सीबलू और पिंकी तो मान जाते थे। लेकिन डब्लू जीद कर लेता “मैं नहीं चलूंगा तो कोई नहीं जाएगा।”
वैसे ही एक दिन की बात है जब मैं अकेले टीवी देखने भाग गया था। और वापस आया तो माई के गुस्से का शिकार हुआ था।
उस दिन कान पकड़कर छोटकी माई ने कहा, ‘निकल जो घर से अपने त अपने इन्हनो के घुमंतू बना देले बा’

डबलू सीबलु और पिंकी
“उस दिन हुआ यह था कि मैं डबलू सीबलु और पिंकी को इधर-उधर की बातों में उलझा कर टीवी देखने भाग गया था। डब्लू सीबलु भी खेलने चले गए। घर पर पिंकी अकेले रह गई।”
मांई से डांट सुनने और घर से भगा देने के बाद मैं बेचारा आस लगाए की माई का गुस्सा ठंडा होगा और घर से दूर जाते मुझे पुकारेगी..
‘अच्छा आ जो खाना खाकर तुरंत किताब उठाओ और पढ़ाई करने बैठ जाओ’..
लेकिन उस दिन मामला ज्यादा बिगड़ गया था लगातार दूसरा तीसरा दिन था जब मैं पूरा दिन घूमने फिरने और टीवी देखने में बताया था।
कुछ दूर चलने के बाद माई के गुस्से का थाह लेने के लिए जैसे ही पलटा तो सामने से कडकते हुए आवाज आई..
‘रुक गई ला.. त.. बहुत मार खईबा दूर हो जो हमारी निगाह से.. फिर से मुंह गिराए मैं शाह जी के बगीचे की तरफ जाने लगा..’
थोड़ी आगे जाने पर पीछे से सीबलु दौड़ते हुए मेरे नजदीक आ गया था। पिंकी माई को घूरते हुए हम लोगों की तरफ ही आ रही थी..
उसने आते ही कहा “बड़की नानी को आने द भैया हम बताईब न की नानी हमन सभी के डांट कर घर से भगा दीं हैं ।”
तब तक डब्ल्यू धीरे धीरे चलते हुए हम लोगों के पास आ गया था। वह बता रहा था कि पिंकी ने ही माई को बताया था कि हमन के भुड़कीया के भैया टीवी देखे चल गईलअ हंवें।
मैंने कुछ नहीं बोला बस पिंकी की तरफ देखा था और गर्दन को हल्के से जुम्बीस किया था । वह भी सामान्य होते हुए सीबलु के बगल में हमारे पीछे खड़ी हो गयी।
ऐसा अक्सर होता था जब मुझे डांट पड़ती तो हम सभी चारों एक साथ हो जाते थे।
बड़की माई का इंतजार
अब बस बड़की माई का इंतजार था उसी के आने पर अब हम लोगों का भला होगा। पूरब वाले खेत से लौटते हुए बड़की माई आई तो हम लोग और बिचारी सी शक्ल बनाकर उसे देखने लगे… पिंकी बड़की माई के पास जाकर छुटकी माई की खूब शिकायत करने लगी ।
बड़की माई हम सबको अपने साथ लेकर घर आ गई और खाना खिलाया। कुछ ही समय बाद हम लोग फिर से आंगन में धमाचौकड़ी मचाने लगे। लेकिन जैसे ही माई घर में आती हम लोग दुबक कर बड़की माई के पास चले जाते थे…….