पीयूष मिश्रा जी की कविता
एक बरखा की दो बूंदे
चल पड़ी थी हल्के हल्के
एक जंगल में गिर गई दूजी ले गई हवाएं..
देख के बादल ये बोले
ओ सहेली गम ना कर तू
दोनों को एक दिन है मिटना
दोनों जो भी जहां है….
एक निंदिया की दो पलके
सो चुकी थी हल्के हल्के
एक को तो सपने ले गए
दूजी खुद को जगाए…
देखकर रातें यह बोली
ओ सहेली गम ना कर तू
दोनों टूटेंगी सुबह को
दोनों जो भी जहां है….