भारत के प्राचीन खगोल विद्या के उस मोड़ की कहानी जो उसे आस्था की ओर मोड़ दिया। तथा विज्ञान अरब से होते यूरोप में फला फूला।

भारत का इतिहास केवल धर्म, दर्शन और आध्यात्म का इतिहास नहीं है — यह गणित और खगोलशास्त्र की अद्भुत परंपरा का भी इतिहास है।लेकिन छठी और सातवीं सदी के बीच भारत के ज्ञान-विज्ञान में ऐसा मोड़ आया, जहां एक ओर वैज्ञानिक विवेक था, तो दूसरी ओर धार्मिक-सांस्कृतिक आस्था।
यह मोड़ वराहमिहिर और ब्रह्मगुप्त जैसे दो महान गणितज्ञों के दृष्टिकोण में दिखाई देता है।
वराहमिहिर
छठी सदी के वराहमिहिर ने अपने ग्रंथ ‘वृहत्तसंहिता’ और “पंचसिंद्धांतिका” में सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण को खगोलीय प्रक्रिया माना। उन्होंने स्पष्ट किया कि- “राहु-केतु कोई वास्तविक ग्रह नहीं हैं।ये केवल आभासी बिंदु हैं जहां चंद्रमा या सूर्य की कक्षा पृथ्वी की कक्षा को काटती है।ग्रहण एक खगोलीय घटना है — देवताओं की लीला नहीं।”
उनका यह दृष्टिकोण भारत के खगोलशास्त्र को पौराणिक आख्यानों से अलग कर विज्ञान की दिशा में ले जा रहा था।
ब्रहमगुप्त
सातवीं सदी के ब्रह्मगुप्त ने ‘ब्रह्मस्फुट सिद्धांत’ में खगोलशास्त्र और गणित के अद्भुत सिद्धांत दिए। उन्होंने पांचवीं सदी के आर्यभट्ट के ‘शून्य’ को परिभाषित किया, ऋणात्मक संख्याओं की गणना की, और बीजगणित के सूत्र विकसित किए। लेकिन ग्रहण की व्याख्या में उन्होंने राहु-केतु को पुनः पौराणिक ग्रह माना —
जहां वराहमिहिर ने आस्था से विज्ञान की ओर रुख किया, वहीं ब्रह्मगुप्त ने विज्ञान में आस्था का पुनः समावेश किया।
अरब की ओर ज्ञान का पलायन
आर्यभट, ब्रह्मगुप्त और वराहमिहिर के ग्रंथ जब अरब जगत पहुँचे, तो वहाँ के विद्वानों —अल-ख्वारिज़्मी, अल-बिरूनी, और अल-फर्ज़ारी ने उन्हें अनुवाद किया।इन ग्रंथों से प्रेरणा लेकर खगोल और गणित में नई लहर उठी।यह ज्ञान यूरोप पहुँचा, जहाँ नवजागरण (Renaissance) की नींव पड़ी।
भारत में जहां पुराणों की रचना हो रही थी,वहीं अरबी दुनिया में भारतीय विज्ञान के आधार पर नई खोजें हो रही थीं।
भारत में विज्ञान
जैसे-जैसे भारत में धर्म का प्रभाव बढ़ा,गणित और खगोलशास्त्र मठों और कर्मकांडों में सिमटते गए। राहु-केतु जैसे गाथा फिर से भय और आस्था का कारण बन गए।
जिन खगोलीय घटनाओं को वराहमिहिर ने गणित से समझाया था,वे अब पुनः धार्मिक कर्मकांडों में लौट गईं।
निष्कर्ष
जैसा की हम अधिकतर भारतीय मानते हैं। भारत ने ज्ञान की जो मशाल जलाई थी, वह दुनिया को रोशन कर गई —लेकिन हम खुद उस प्रकाश से दूर हो गए।
आज आवश्यकता है उस चेतना की, जो वराहमिहिर ने दिखाई थी। जहां परंपरा का सम्मान हो,पर विवेक के आगे वह रुकावट न बने।