
एक खास दिन, एक खास फिल्म और एक
गहरी विचारधारा..हमने एक ऐसी फिल्म देखी जो आज के भारत की समाजिक सच्चाइयों को छूती है।
‘फुले’ फिल्म सिर्फ मनोरंजन नहीं, बल्कि एक सशक्त संदेश देती है -महिलाओं के अधिकार, सामाजिक न्याय, और लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत करने का एक प्रयास। लेकिन अफसोस की बात है कि इतनी प्रभावशाली फिल्म को कुछ विचारधारात्मक मतभेदों के कारण जानबूझकर सीमित शो टाइम और कम स्क्रीन्स दिए गए।
समाज को दिशा देने वाले ऐसे सिनेमा को अगर सही मंच नहीं मिलेगा, तो यह केवल कला का नहीं, बल्कि बदलाव की संभावना का भी दमन है।
हमें एक जागरूक दर्शक के रूप में ऐसी फिल्मों को समर्थन देना चाहिए, ताकि सिनेमा केवल व्यापार न रहकर एक सशक्त सामाजिक माध्यम बन सके।
ज्योतिबा फुले पर बनी इस फिल्म की कहानी अंग्रेजों से आजादी के लड़ाई के साथ ही आगे बढ़ती है। इसकी शुरुआत सावित्रीबाई जी द्वारा प्लेग से पीड़ित लोगों को मदद करने से होती है।
ज्योतिबा अपने कुछ ब्राह्मण तथा अल्पसंख्यक मित्रों के साथ लड़कियों को पढ़ाते हैं। लड़कियों की शिक्षा से उस गांव के ब्राह्मण और मौलवी नाराज हो जाते हैं। और तरह-तरह की बाधा डालते हैं।
ज्योतिबा और सावित्री बाई जी को उनके ब्रह्मण और एक मुस्लिम मित्र का साथ मिलता है। इस तरह से फिल्म की आगे बढ़ती है। इन दृश्यों से दिखता है कि किस प्रकार से समाज के अगड़े-पिछड़े और अल्पसंख्यक मित्रों की सहायता से समाज की बदलाव की लड़ाई महात्मा जी और सावित्रीबाई जी लड़ रहे हैं।
भारत, जहां पिछड़े, अगड़े, दलित और अल्पसंख्यक समाज के बीच की खाइयों को मिटाकर एकता का सेतु बनाया जा सकता है। यह फूल जी के संघर्ष से झलकता है।
फुले फिल्म न केवल संवेदनशील विषयों को उठाती है, बल्कि वर्तमान राजनीति के वैचारिकी पर भी गहरी चोट करती है।
अफसोस इस बात का है कि ऐसी साहसी और विचारोत्तेजक फिल्म को सीमित शो टाइम और स्क्रीन्स देकर पीछे धकेलने की कोशिश की गई।
लखनऊ में तो सिर्फ शुक्रवार के दिन एक शो ही था वह भी 10:30 बजे रात को।
फिल्म जिस उद्देश्य से बनाई गई है उस उद्देश्य को पूरा करती है। यह एक मसाला फिल्म नहीं है। ऐसी फिल्में देखी जानी चाहिए।
प्रतीक गांधी और पत्रलेखा दोनों के काम अच्छे है। पत्रलेखा को सिटी लाइट्स में देखा था लेकिन यहां बतौर सावित्रीबाई जी के चरित्र अभिनय में कमाल का काम किया है।