
अज्ञेय जी को पढ़ते हुए इक यायावर की याद और मुझ पाठक द्वारा उसे लिख लेना।
इधर मैं जिन भी रचनाओं को पढ़ता हूं उनमें उस रचनाकार के जो अपने आत्मसात व भावना उनकी लेखनी में होती है। वह सब जैसे मेरे जीवन की व्यक्तिगत झलकियां बन जाती है।
पहले के अपेक्षा अब मैं इन रचनाओं से अपने आप को कुछ ज्यादा ही जुड़ा महसूस करने लगा हूं।
अभी हाल ही में गोर्की जी का ‘मेरा बचपन’ तथा मानव कौल जी की रचना ‘तितली’ पढ रहा था। इनको पढ़ते हुए जैसे लगा कि कई बातें मेरे लिए ही इन रचनाओं में लिखी गई है।

मेरी आदत में शुमार है, सुबह ग्राउंड से आने के बाद, पसीने के सुखने तक के लिए कोई ना कोई किताब उठा लेता हूं ।
इसी के क्रम में मेरे हाथ में आज अज्ञेय जी की ‘अरे, यायावर रहेगा याद’ आ गई।
इसके भुमिका के बाद की एक कविता को पढ़ने के बाद, मैं इस पर अपनी भावना लिखने से अपने आप को नहीं रोक सका।
जैसा कि उस यायावर ने अनुभव किया..
एक यात्री अपनी यात्रा में पहाड़ी के ऊंचाई पर जातीं सड़कों में एक उमंग देखता हैं..
वही तराई में आतीं नदी उसे दर्द की रेखा सी लगती है।
वह यात्री एक घोसले में मौन चिड़ियों के बच्चों को देखता है।
इन मनोरम दृश्य को देखकर सब कुछ छोड़कर जाने वाला वह यात्री कह उठता है…
पार्श्व गिरी का नम्र, चिड़ों में..
डगर चढ़ती उमंगों-सी
बिछी पैरों में नदी, ज्यों दर्द की रेखा।
विहग-शिशु मौन निड़ों में।
दिया मन को दिलासा: पुनः आऊंगा..
भले ही बरस दिन-अनगिन युगों के बाद!
क्षितिज ने पलक-सी खोली..
दमक कर दामिनी बोली:
‘अरे, यायावर! रहेगा याद?’