
स्वामी सहजानंद का जन्म(सन1889सम्भावित) गाजीपुर जिले के देवा नामक गांव में एक किसान परिवार में हुआ था। देवा गांव का नजदीकी स्टेशन दुल्हपुर है। महात्मा गांधी जी चंपारण आंदोलन से किसानों का पक्ष उठाया था। परन्तु किसानों को अखिल भारतीय स्तर पर संगठित करने का काम स्वामी सहजानंद सरस्वती जी ने किया था।
बचपन में ही इनके माता जी का देहांत हो गया। इनका लालन-पालन इनकी चाची ने किया। घर वालों ने स्वामी जी का नाम नवरंग राय रखा। गाजीपुर तहसीली स्कूल से मीडिल(कक्षा 8तक) की परीक्षा पास करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए सन 1904 में उन्होंने अपना दाखिला गाजीपुर के जर्मन मिशन हाई स्कूल(आजकल का राजकीय इण्टर कालेज/सिटी स्कुल में कराया। उस समय तक उनका मन सन्यास में लगने लगा ।1907 के बिल्कुल शुरू में घर-द्वार छोड़कर काशी चले गया और संन्यास ले लिया।

सन्यास ग्रहण करने के पश्चात नवरंग राय का नाम सहजानंद पड़ा। उस समय तक पूजा और पुजारियों के संसर्ग से या घर और गांव वालों की प्रवृत्ति से उनके अंदर सन्यास की भावना भर चुकी थी। सन्यास ग्रहण के पश्चात घुमक्कड़ी के दौरान उन्हें कई खट्टे मीठे अनुभव हुए। ईश्वर की खोज में घूमते-घुमाते वापस जब वो काशी आए। तो वहां से गंगा के किनारे आगे बढ़ते हुए गाजीपुर होते हुए बक्सर के पास कोटवा-नारायणपुर आगे बढ़कर भरौली पहुंचे। भरौली में एक महंत शिवप्रसाद गिरी के यहां एक डेढ़ माह रुक गए। महंत शिव प्रसाद गिरी गांव वालों को पैसे सूद पर देते था।गांव वाले समय पर पैसे चुका नहीं पाते थे और शुद दर शुद अपने बचे खेतों को महंत के हवाले कर देते थे।इस तरह महंत गांव वालों का शोषण किया करता था। भरौली के महंत के द्वारा बरसाए जा रहे शोषण ने उनके दिल पर एक गहरा दूरगामी असर छोड़ा। भविष्य के किसान आंदोलन के प्रणेता के लिए शायद इसने एक जमीन तैयार की।
अपने घुमक्कड़ी के दौरान साधू सन्यासियों और महंतों के गांव के गरीबों व किसानों के प्रति इस कटु व्यवहार को देखकर उनके अंदर बहुत बड़ा परिवर्तन आया। इस प्रकार शुरुआत में उनके अंदर धर्म के प्रति जो अंधविश्वास व कट्टरता की भावना थी वह बाद के दिनों में जाती रही और आगे जैसे-जैसे उनके अनुभव में प्रौढता आती गई, वैसे उनकी सोच में तब्दीलियां भी आती गई आगे चलकर उन्होंने उन्हीं चीजों को माना जो उनके तर्क की कसौटी पर खरे उतरते सके।
स्वामी सहजानंद सरस्वती का भूमिहार ब्राह्मण सभा से जुड़ने के साथ सार्वजनिक जीवन की शुरुआत हुई।सर्वप्रथम इस सभा के जरिए भुमिहारों के पुरोहिती करने के अधिकार की लड़ाई से शुरुआत किया था। यह उनके जीवन के लिए एक टर्निंग प्वाइंट साबित हुआ बलिया महासभा के बाद से ही सामाजिक कार्य और उसकी अहमियत उन्हे समझ में आने लगी थी। इसी बीच कोटवा नारायणपुर में रहते हुए देश में घट रही घटनाओं ने उन्हें राजनीति की ओर प्रेरित किया।उनके व्यक्तित्व में एक नया आयाम जोड़ा और उनकी सोच का और व्यापक हुई। जब उन्होंने देखा कि जिनके लिए वह संघर्ष कर रहे हैं। वह भी आम जनता को कितना प्रताड़ित करते हैं तो उनका जमीदारों के संघर्ष से मोहभंग हो गया।इस मायने में कि स्वामी जी अब एक जाति की परिधि से मुक्त होकर पूरे समाज की ओर आकृष्ट हुए।
अखबारों में आ रहे समाचारों के जरिए वे राष्ट्रीय आंदोलन की धारा से प्रभावित हो रहे थे। महात्मा गांधी की असहयोग और अहिंसा की बातें उन्हें अंदर से जी जोड़ रहे थे। 1920 में गांधी जी जब असहयोग आंदोलन सिलसिले में पटना आएं जहां स्वामी जी को उनको सुनने का मौक़ा मिला। कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन की घोषणा में की बगैर किसान,मजदूर और कामगारों के साथ लिए , उनके सामूहिक रुप से राजनीति में आए देश की आजादी की मांग असंभव है। यही से उनके मन में कांग्रेस की प्रति आस्था जगी। गांधी जी के बातों का प्रचार वह गांव-गांव करने लगे।
जब वह कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन से सत्याग्रह के नियम और प्रतिज्ञा पत्र लेकर प्रचार करने लगे तो वापस गाजीपुर आने पर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया ।
गाजीपुर जेल में ज्यादा दिन नहीं रहे वहां से उन्हें बनारस जेल भेज दिया गया। वहीं उनकी मुलाकात कृपलानी जी से हुई। बनारस में 1 माह गुजरने के बाद उन्हें फैजाबाद में जेल भेज दिया गया यहां उन्हें गीता के अध्ययनों पठन-पाठन का मौका मिला। faizabad जेल से भी उन्हें अचानक लखनऊ जेल भेज दिया । लखनऊ जेल में ही उनकी मुलाकात पंडित नेहरु से हुई।

नेहरू जी से उनका काफी अच्छा संबंध रहा ।किसान सभा को झंडे का रंग और नया रुपरेखा तय करने नेहरू, नरेंद्र देव आदि लोग भी पहुंचे थे उनका मत किसान सभा के लिए तिरंगा झंडा अपनाने का था। कांग्रेस जमीदार और किसान संघर्ष पर आगे बढ़ने से झिझकती थी। कांग्रेस के अंदर जमिदारों की अच्छी-खासी पकड़ थी और कांग्रेस नहीं चाहती थी कि किसान आंदोलन के नाम पर जमीदारों से सीधा टकराव मोल लिया जाए। चुकी स्वामी जी अपने शुरुआती जीवन में जो अनुभव पाया था की जमीदार किस तरह से किसान मजदूरों कामगारों को परेशान करते हैं। अतएव स्वामी जी, सुभाष चंद्र बोस उनके मित्र यदुनंदन शर्मा और राहुल सांकृत्यायन जी आदि सभी लोग किसान सभा हेतु संघर्ष का प्रतीक ‘लाल झंडे’ के पक्ष में थे। 1939 में किसान सभा के लिए लालरंग ही झंडे का तय हुआ।
अखिल भारतीय किसान सभा के जरिए वह आजीवन जमीदारी खत्म करने के लिए लड़ते रहे। सन 1950 के 26 जून को उन्होंने हमेशा के लिए इस दुनिया को अलविदा कह दिया और गजब का इत्तिफाक है कि उसी साल जमीदारी खत्म करने वाले विधेयक को कानून का जामा पहनाया गया।
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