
कानपुर से थोड़ी दूर पर कन्नौज एक छोटा शहर है। लेकिन हम यहां जिस जमाने की बात कर रहे हैं। उस जमाने में कन्नौज एक बड़ी राजधानी थी। यह अपने कवियों कलाकारों बौद्ध भिक्षु और दार्शनिकों के लिए मशहूर था। यह भारत के महान सम्राट हर्षवर्धन की राजधानी थी।
चीनी यात्री हुआन सांग (ह्वेन त्सांग) हर्षवर्धन के समय ही कन्नौज (भारत में) पहुंचा था।
कन्नौज का प्राचीन नाम कान्यकुब्ज यानी ‘कुबड़ी कन्या’ है। कथा है कि एक प्राचीन ऋषि ने अपने अपमान होने से गुस्से में एक राजा की 100 कन्याओं को शाप दे दिया था। सभी कन्याएं कुबड़ी हो गई थी। उस समय से इस शहर का नाम ‘कान्यकुब्ज’ पड़ा।
हर्षवर्धन के राजा बनने की कहानी बहुत ही रोमांचक है। हर्ष का जन्म 590 ई. में हुआ था। पिता प्रभाकरन बर्मन की मृत्यु के बाद उनका बड़ा भाई राज्यवर्धन राजा बना। वह हरियाणा के थानेसर पर शाशन करता था। उनकी एक बहन राज्यश्री थी। जिसकी शादी कन्नौज के राजा से हुई थी।

हुणों आक्रमणकारियों ने कन्नौज के राजा को मार डाला। उसकी रानी राजश्री को कैद कर लिया। राजश्री का बड़ा भाई राजवर्धन अपनी बहन को छुड़ाने के लिए हूणों से लड़ने आए। उसने हूणों को तो हरा दिया लेकिन खुद हुणों के धोखेबाजी से मारा गया
उस समय राज्यवर्धन का छोटा भाई हर्षवर्धन मात्र 16 साल का था। वह अपनी बहन राजश्री की तलाश में निकला। हर्ष की बहन किसी तरह से कैद से निकलकर पहाड़ों में जा चुकी थी। उसने आत्महत्या का निश्चय कर लिया था। कहते हैं कि वह जलने ही जा रही थी कि हर्षवर्धन ने उसे ढूंढ कर बचा लिया।
अपनी बहन को बचाने के बाद हर्ष ने उस हूण आक्रमणकारी को सजा दी, जिसने उसके भाई को धोखे से मार दिया था। इसके बाद उसने सारे उत्तर भारत को बंगाल की खाड़ी से अरब सागर तक और दक्षिण से विंध्याचल तक जीत लिया। इस जीत के बाद उसने कन्नौज को अपनी राजधानी बनाया।
दरबारी कवि बाणभट्ट के रचनाओं से सम्राट हर्षवर्धन के समय का विस्तृत वर्णन मिलता है। बाणभट्ट की रचना ‘हर्षचरित’ में हर्ष के जीवन का वर्णन है।
चीनी बौद्ध भिक्षु ‘हुआन सांग‘ 629 ई. में हर्ष के समय में ही भारत आये थे। हुआन सांग का जन्म चीन के लुआंग में 602 ई. में हुआ था। वह चार भाई-बहनों में सबसे छोटा था। 13 वर्ष की अल्पायु में ही वह बौद्ध भिक्षु बन गया। बौद्ध पाठ-पुस्तकों में मतभेद व भ्रम के कारण वह भारत में आकर बौद्ध धर्म का अध्ययन करना चाहता था।
भारत की यात्रा करते समय उसने जिस रास्ते का इस्तेमाल किया था। शताब्दियों बाद लगभग उसी रास्ते का इस्तेमाल युरोप का प्रसिद्ध यात्री मार्को पोलो ने किया था। यात्रा में उसे बौद्ध भिक्षु और आम व्यापारियों के साथ ही डाकुओं के साथ भी यात्रा किया था।
वह खायबर दर्रा से गंधार के कनिष्क स्तुप पहुंचा। वहां से सिंधु नदी पार कर तक्षशिला, जो एक महायान बौद्ध राज्य काश्मीर के अधीन था। वहां से मेरठ, मथुरा होते हुए सम्राट हर्षवर्धन की राजधानी कान्यकुब्ज पहुंचा।
उसकी यात्रा पुस्तक में भारत और मध्य एशिया का बहुत कुछ हाल मिलता है। उसने हर्ष के दरबार में कई वर्ष बीताएं। भारत में बहुत विस्तार से भ्रमण किया।
उसने अपनी यात्राओं का वर्णन अपनी किताब ‘सी-यू-की’ में किया है। भारत का सम्राट हर्षवर्धन उससे बहुत प्रभावित हुआ था। हुआन सांग के प्रभाव में पड़कर हर्ष बौद्ध धर्म का महान समर्थक हो गया। उसने हर्ष के दरबार और उस समय के जन-जीवन का सजीव विवरण लिखा है।
हुआन सांग के उल्लेखानुसार उस समय ब्राह्मण और क्षत्रिय लोग सादा जीवन बिताते थे। पर सामंत और पूरोहितो का जीवन विलास में था। उस समय तक वर्णों के बीच भी वर्ग भेद आ गया था। हुआन सॉन्ग ने शुद्रो को कृषक कहा है।
प्रयाग के बड़े कुंभ मेले का हुआन सांग ने उल्लेख किया है। वह लिखता है कि बौद्ध होते हुए भी हर्ष इस हिंदू मेले में जाया करते थे। उसकी तरफ से एक आज्ञा पत्र जारी किया जाता था, जिसमें ‘पंच हिंद’ के सब गरीबों और मुहताजों को मेले में आकर उसका मेहमान होने की दावत दी जाती थी।

इस मेले में हर्षवर्धन हर पांचवें वर्ष अपने खजाने की सारी बचत बांट देता था। एक बार तो उसने अपना राजमुकुट और कीमती कपड़े भी दान में दे डाला था। अपनी बहन राज्यश्री से एक पुराना मामूली कपड़ा लेकर वापस आया ।
सम्राट हर्षवर्धन ‘बैस धर्म’ को मानने वाले थे। उन्होंने अपने शासनकाल में बौद्ध, हिंदू और जैन धर्म के प्रतिनिधियों से संबंध स्थापित किए थे। हालांकि, हुआन सांग के सम्पर्क में आने के बाद हर्षवर्धन का झुकाव बौद्ध धर्म के तरफ हुआ। वे धर्मिक एकता को बढ़ावा देने के लिए जाने जाते थे।
बौद्ध धर्म के महायान सिद्धांतों के प्रचार के लिए हर्ष ने कन्नौज में एक विशाल सम्मेलन आयोजित किया। इस सम्मेलन में हुआन सांग भी शामिल हुआ। इसके अलावा 20 देशों के राजा और विभिन्न संप्रदाय के कई हजार पुरोहित भी जमा हुए।
सम्मेलन में शास्त्रार्थ का आरंभ हुआन सांग ने किया। उसने आह्वान किया कि उसके तर्कों का कोई भी खंडन करें। लेकिन 5 दिनों तक कोई भी खंडन करने को खड़ा नहीं हुआ। उस सम्मेलन में अचानक माहौल गर्म हो गया। जिस मीनार में सम्मेलन हो रहा था उसमें आग लग गई। हुआन सांग पर घातक हमला हुआ।
हमले के बाद हर्ष ने 500 ब्राह्मणों को गिरफ्तार कर लिया और उन्हें निर्वासित कर दिया। कुछ ब्राह्मणों को तो मौत की भी सजा मिली। इस घटना से प्रकट होता है कि उस समय धार्मिक संप्रदायों में टकराव था।
यात्रा वृत्तांत – ‘ वह भी कोई देस है महराज ‘
हर्ष ने कन्नौज के बाद ‘प्रयाग’ में महासम्मेलन बुलाया। इस अवसर पर भी बुद्ध की प्रतिमा का पूजन हुआ। हुआन सांग ने प्रवचन किया। प्रयाग में वह हमेशा दान देता था। हुआन सांग के अनुसार प्रयाग के इसी सम्मेलन में उसने अपना सब कुछ दान दे दिया था।
बौद्ध धर्म और नालंदा- हुआन सांग के समय बौद्ध लोग 18 संप्रदाय में बंटे हुए थे। सबसे बड़ा केंद्र नालंदा के बिहार में था। जहां बौद्ध भिक्षुओं को शिक्षित करने के लिए बड़ा विश्वविद्यालय था। कहा जाता है कि यहां 10000 छात्र थे। नालंदा विश्वविद्यालय का भरण-पोषण 100 गांव के राजस्व से होता था। हर्षवर्धन के काल में नालंदा में विशाल बौद्ध विहार था।
हुआन सांग ने भारत वासियों और भारत के शासन की बहुत तारीफ की है। वह कहता है कि भारत के साधारण लोग स्वभाव से खुशमिजाज होते हैं। वे पैसे के मामले में मक्कार नहीं है। वह आगे लिखते हैं –
‘सरकारी शासन का आधार उदार सिद्धांतों पर है इसलिए शासन का ढांचा पेचीदा नहीं है।लोगों से बेगार नहीं लिया जा सकता। इस तरह लोगों पर करों का बोझ हल्का है।’
हुआन सांग पर भारतवासियों के विद्या प्रेम का बहुत असर पड़ा था। अपनी सारी पुस्तक में इस बात का जिक्र करता है। उसके अनुसार बच्चों की शिक्षा जल्दी शुरू कर दी जाती थी।लड़के-लड़कियों को 7 वर्ष की उम्र में ही पांचों शास्त्रों की पढ़ाई शुरू कर दी जाती थी। वे पांच शास्त्र थे-1.व्याकरण 2.कला-कौशल का शास्त्र 3.आयुर्वेद 4.न्याय/तर्कशास्त्र 5.दर्शन। उसके भारतीय शिक्षा के वर्णन से लगता है उस समय भारत में शिक्षा बहुत ही उच्च कोटि की थी।
उस जमाने में भारत का एक पक्ष मजबूत था। राजा और सेनाधिकारी विद्वान और योग्य लोगों का सम्मान करते थे। उनकी कोशिश रहती थी कि विद्या और संस्कृति को सम्मान मिले दुष्ट प्रवृत्ति और धन दौलत को नहीं।
इसने तुर्कों के बारे में भी लिखा है। इनका अभी नया कबीला था। जो मध्य एशिया में उसे मिलें थे। जो आगे के वर्षों में पश्चिम की तरफ बहुत सी सल्तनतों का तहस-नहस कर दिया था।
भारत में बहुत वर्ष बिताने के बाद हुआन सांग अपने देश लौट गया। लौटते हुए वह सिंधु नदी में डुबने से बच गया। बहुत सी महत्वपूर्ण क़िताबें बह गयी। शेष पुस्तकों का चीनी भाषा में अनुवाद करता रहा। चीन में 5 फ़रवरी 664 ईस्वी में हुआन सांग की मृत्यु हो गई।
स्रोत
भारत का प्राचीन इतिहास- रामशरण शर्मा
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