शुरुआत में उनके अंदर धर्म के प्रति जो अंधविश्वास व कट्टरता की भावना थी वह बाद के दिनों में जाती रही और आगे जैसे-जैसे उनके अनुभव में प्रौढता आती गई, वैसे उनकी सोच में तब्दीलियां भी आती गई आगे चलकर उन्होंने उन्हीं चीजों को माना जो उनके तर्क की कसौटी पर खरे उतरते सके।
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